सूरदास जी के दोहेंः- |
सूरदास जी के दोहेंः-
चरन-कमल बंदौ हरि-राइ।
जाकी कृपा पंगु गिरि लंघै, अंधे को सब कुछ दरसाइ।
बहिरो सुनै गूॅग पुनि बोलै, रंक चलै सिर छत्र धराइ।
सूरदास स्वामी करूनामय, बार-बार बंदौ तिहिं पाइ।।
अर्थः- सूरदास जी कहतें हैं कि हे भगवान श्री कृष्ण !मैं आपके कमलरूपी चरणों की वन्दना करता हूॅ। जिन चरणों की कृपा से लॅगड़ा व्यक्ति भी ऊॅचे से ऊॅचे पर्वत लॉघ जाता है। अन्धा व्यक्ति सब कुछ देखने में समर्थ हो जाता है। बहरे व्यक्ति को सुनाई देने लगता है। गूॅगा बोलने लगता हैं। निर्धन व्यक्ति सिर पर छत्र धारण करके राजा बन जाता है। सूरदास जी ऐसे कृपालु भगवान के उन चरणों की बार-बार वन्दना करतें है।
अविगत-गति कछु कहत न आवैं।
ज्यों गूॅगे मीठे फल को रस अन्तरगत ही भावै।
परम स्वाद सबही सु निरन्तर अमित तोष उपजावै।
मन बानी को अगम अगोचर सो जाने जो पावै।
रूप-रेख-गुन-जाति-जुगाति-बिनु निरालंब कित धावै।
स्ब विधि अगम विचारहिं तातैं सुर सगुन-पद गावैं।
अर्थः- निर्गुण-निराकार ब्रम्हा की गति कथन से परे है। वेद भी उसका पार नहीं पाते और नेति-नेति कहकर रह जाते है। जिस प्रकार गूॅगा वनुष्य मीठे फल को खाकर उसका मधुर स्वाद का ह्दय में अनुभव करता है परन्तु कह नही सकता। इसी प्रकार जो कोई बिरला साधक निर्गुण-निराकार ब्रम्हा का अनुभव कर लेता है उसे उसका अपार आनन्द जनित अनुभव ह्दय में होता है परन्ततु उस आनन्दानुभव को वह वाणी के अभाव में गुड़ में मिठास का वर्णन नही कर सकता निर्गुण ब्रम्हा अनुभावित होने से जिस पर स्वाद की प्राप्ति होती है वह अनुभव करने वाले के ह्दय को निरन्तर सन्तोष प्रदान करती है। परन्तु जो निर्गुण-निराकार ब्रम्हा मन और वाणी के लिए अगम है अर्थात मन जिसका चिन्तन नही कर सकता और वाणी जिसके सम्बन्ध में सोच नही सकती वह इन्द्रियों की पहुॅच से परे है। उसे कोई विरला ही जानने वाला पा सकता है। सर्वसाधारण के लिए वह सुलभ नही है क्योंकि उसके स्वरूप की कोई स्पष्ट रूपरेखा नही है। वह त्रिगुणातीत है। न तो इसकी कोई जाति है और न उसके पाने का सरल उपाय ही हैं इस प्रकार निर्गुण-निराकार पर मन टिकाने का कोई आश्रय नही है अतः मन निराश्रय होकर इधर-उधर भ्रमता फिरता है। इस प्रकार निर्गुण-निराकार ब्रम्हा को सब प्रकार से अगम कहा गया है। अतः सूरदास सगुण-साकार की लीला का गान करते हैं।
वासुदेंव की बडी बडीई।
जगत पिता, जगदीस, जगत-गुरूत निज भक्तनि की सहत ढिठाई।
भृगु कौ चरन राखि उर ऊपर, बोले वचन सकल सुखदई।
सिव बिरंचि मारन को धाए, यह गति काहू देव न पाई।
बिनु बदलें उपकार करत हैं, स्वारथ बिना करत मित्राई।
रावन अरि कौ अनुज विभीषनख् ताकौं मिले भरत की नाई।
बकी कपट करि मारन आई, सो हरि जू बैकुण्ठ पठाई।
बिनु दीन्हैं ही देत सूर प्रभु, ऐसे हैं जदुनाथ गोसाई।।
अर्थः- सूरदास जी भगवान कृष्ण की महिमा का गुणगान करते हुए कहते हैं कि बसुदेव के पुत्र श्रीकष्ण भगवान की महिमा अपार है। उनकी उदारता का वर्णन करना वाणी से परे है। वे सम्पूर्ण संसार के पिता स्वामी एवं गुरू है। वे अपने भक्तों की धृष्टता एवं अपराधों को क्षमा कर देते है। महर्षि भृगु ने का्रेध में आकर जब विष्णु की छाती पर लात मारी तो उस आघात को भी उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक सहन कर लिया और अपनी वाणी से सबको सन्तुष्ट कर दिया। शिव जी तथा ब्रम्हा जी में इस प्रकार की सहनशीलता नही थी अतः वे महर्षि भृगु को मारने के लिए दौडे परन्तु भगवान विष्णु ने उन्हें शान्त कर दिया! वस्तुतः जैसा स्वभाव भगवान विष्णु का है, वैसा किसी अन्य देवता का नही है अर्थात विष्णु जैसी सहनशीलता किसी अन्य देव में नही है वे बिना बदले की भावना से सबका उपकार करते है। बिना स्वार्थ के सबके साथ मित्रता रखते है। जब शत्रु रावण का छोटा भाई विभीषण भगवान राम से मिलने आया तो वे अपने छोटे भाई भरत की तरह ही मिले। उन्होने विभीषण और भरत में कोई अन्तर नही माना जब कि नाम कि राक्षसी कपट करके कृष्ण को मारने के लिए आई तो उस पर भगवान ने बडी कृपा की और उसे बैकुण्ठ भेज दिया। इस प्रकार यदुवंशियों में श्रेष्ठ हम सबके स्वामी भगवान कृष्ण इतने उदार है कि वे अपने भक्तों को बिना मॉगे ही सब कुछ दे डालते है।
तुलसीदास जी का जीवन परिचयः-
सूरदास जी के दोहेंः-
प्रभु कौ देखौ एक सुभाइ।
अति-गम्भीर-उदार-उदधि हरि, जान-सिरोमनि राइ।
तिनका सौं अपने जन कौ गुन मानत मुरू-समान।
सकुचि गनत अपराध-समुद्रहिं बूॅद-तुल्य भगवानं
बदन-प्रसन्न कमल सनमुख है देखत हॉ हरि जैसें।
बिमुख भए अकृपा न निमिषहॅॅू, फिरि चितयौं तो तैसे।
भक्त-विरह कातर करूनामय, डोलत पाछै लागे।
स्ूरदास ऐसे स्वामी कौं देहिं पीठि सो अभागे।
अर्थः- सूरदास जी कहते है कि भक्तों के लिए भगवान का स्वभाव सदैव एक-सा रहता है। भगवान श्रीकृष्ण अपनी गम्भीरता एवं उदारता में समुद्र के समान हैं और जो ज्ञानियों के शिरोमणि है, उनके भी स्वामी है। उनका भक्त यदि तिनके के बराबर भी अच्छा कार्य करता है तो वे उसे सुमेरू पर्वत के समान बडा भारी कार्य मान लेते है और यदि उनका भक्त समुद्र के समान विशाल या भारी अपराध कर देता है तो भगवान उसे बडे संकोच के साथ बूॅद के समान बहुत छोटा ही मानते हैं। जब उनका कोई भक्त उनके समक्ष अर्थात उनकी शरण में जाता है तो उनका विमुख हो जाता है तो भी उनका वैसा ही प्रसन्न मुख दिखाई देता है वे एक क्षण के लिए भी अपनी कृपा दृष्टि हटाते नही है। यही प्रभु का स्वभाव है जो भक्त के सम्मुख या विमुख होने पर सदैव एक-सा रहता है भक्तवत्सल, करूणामय भगवान अपने भक्त के विरह में दुखी होकर उसके पीछे-पीछे भागते है। सूरदास जी कहते है। की ऐसे उदार स्वामी से जो विमुख हो जाते है उनसे बडा दुर्भाग्यशाली कोई नही है।
काहू के कुल तन न विचारत।
अविगत की गति कहि न परति है, व्याध अजामिल तारत।
कौन जाति अरू पॉति बिदुर की ताही कैं , पग धारत।
भोजन करत मॉगि घर उनकैं, राज मान-मद टारत।
ऐसे जनम-करम के ओछे, ओछिन हॅू ब्यौहारत।
यहै सुभाव सूर के प्रभु कौ, भक्त-बछल प्रन पारत।
अर्थः-सूरदास जी कहते है कि भगवान अपने भक्तों का उद्वार करने में किसी के कुल की ओर ध्यान नही देते। उन अविज्ञेय एवं निराकार भगवान की लीला का वर्णन नही किया जा सकता। भला बताइये, विदुर की जॉति-पॉति कौन बडी ऊॅची थी किन्तु भगवान उनके यहॉ स्वयं पधारे थें। उनके घर उन्होंने मॉगकर भोजन किया और दुर्योधन के अहंकार पूर्ण राज सम्मान को ठुकरा दिया। अतः यह कहा जा सकता है कि जो जन्म और कर्म से हीन है उन अधम और नीच लोंगो के साथ ही भगवान अपना सम्बन्ध रखते है। जहॉ अहंकार एवं राजमद होता है उधर भगवान देखते तक नही है। सूरदास जी कहते है कि यही हमारे प्रभु का स्वभाव ऐसे भक्त वत्सल भगवान अपने प्रण का पूर्ण रूप से पालन करते हैं
surdas ke dohe in hindi |
जैसें तुम गज कौ पाऊॅ छुडायौ।
अपने जन कौं दुखित जानि कै पाऊ पियादे धायौ।
जहॅ जहॅ गाढ़ परी भक्तन कौं तहॅ तहॅ आपु जनायौ।
भक्ति हेत प्रहलाद उबार्यौ, द्रौपदि-चीर बढायौ।
प्रीति जानि हरि गए बिदुर कैं नामदेव-घर छायौ।
सूरदास द्विज दीन सुदामा तिहिं दारिद्र नसायौ।
अर्थः- सूरदास जी कहते है कि हे प्रभु! जब आपने ग्राह से गज के पैर को छुडाया था। उस समय अपने भक्त को दुखी जानकर आप नंगे पैर पैदल ही दौड़ पडे थे। इतना ही नही जब-जब जहॉ-जहॉ भक्तों पर विपत्ति पड़ती है वहॉ-वहॉ आप स्वयं प्रकट हो जाते है। भक्ति के कारण आपने प्रह्लाद की रक्षा की। भक्ति के कारण ही अपने द्रोपदी का चीर बढाकर भरी सभा में उसकी मर्यादा बचा ली।
महात्मा विदुर का सच्चा प्रेम देखकर आप उनके घर में पधारे।सन्त नामदेव की भक्ति के कारण ही अपने उनके घर का छप्पर छाया। दीन-हीन ब्राम्हण सुदामा के सच्चे प्रेम के कारण ही आपने उनकी दरिद्रता दूर की।
स्याम गरीबनि हूॅ के ग्राहक।
दीनानाथ हमारे ठाकुर, सॉचे प्रीति-निबाहक।
कहा बिदुर की जाति-पॉति कुल, प्रेम-प्रीति के लाहक।
कह पॉडव कैं घर ठकुराई ? अरजुन के रथ-बाहक।
कहा सुदामा कैं धन हौ ? तौ सत्य-प्रीति के चाहक।
सूरदास सठ, तातैं हरि भजि आरत के दुख-दाहक।।
अर्थः- सूरदास जी कहते है कि हमारे भगवान कृष्ण गरीबों पर विशेष कृपा करते हैं। हमारे प्रभु दीन हीन अनाथों के स्वामी है। दीन-हीनों के प्रति वे सच्चे प्रेम का निर्वाह करते है। महात्मा विदुर दासी पुंत्र तथा निर्धन थे। भगवान ने उनकी जाति-पाति कुल आदि का विचार न करके उनके प्रेम को देखा और उन्हें अपना बना लिया क्योंकि वे निर्धन होते हुए भी भगवान के परम भक्त थें। पाण्डवों के घर ंस्वामित्व नही था। अर्थात वे राजा नही थे फिर भी भगवान कृष्ण अर्जुन के सारथी बनें। सुदामा के पास धन कहॉ था। वे तो अत्यन्त निर्धन ब्राम्हण थे किन्तु कृष्ण के प्रति उनके ह्दय में सच्चा प्रेम था। इसीलिए भगवान ने उनको चाहा और उनका उद्वार कर दिया। सूरदास जी अपने मन को समझाते हुए कहते है कि अरे मूर्ख मन! तू सब कुछ छोडकर भगवान का भजन कर क्योंकि भगवान ही दुखियों के दुख दूर करने वाले है।
सूरदास जी के दोहेंः- |
गुरू बिनु ऐसी कौन करै।
माला-तिलक मनोहर बाना, लै सिर छत्र धरै।
भवसागर तै बूडत राखै, दीपक हाथ धरै।
सूर स्याम गुरू ऐसौ समरथ, छिन मैं ले उधरे।ं
अर्थः- गुरू की महिमा का वर्णन करते हुए सूरदास जी कहते है कि गुरू के बिना शिष्य पर ऐसी कृपा कौन कर सकता है गुरू की वश-भूषा का वर्णन करते हुए सूरदास जी कहते है कि वे गले में माला और मस्तक में तिलक धारण करते है। सिर पर छत्र लगा होने से उनका रूप अत्यन्त मनोहारी हो जाता है। संसार -साबर में डूबने से बचाने के लिए वे अपने शिष्य के हाथ में ज्ञान रूपी दीपक देते है। ऐसे गुरू पर बलिहारी जाते हुए सूरदास जी कहते है कि हमारे गुरू श्रीकृष्ण इतने समर्थ है कि उन्होंने एक ही क्षण में मुझे इस संसार-सागर से पार कर दिया ।
हमारे निर्धन के धन राम।
चोर न लेत, घटत नहि कबहूॅ, आवत गढैं काम।
जल नहिं बूडत, अगिनि न दाहत है ऐसौ हरि नाम।
बैकुंठनाम सकल सुख-दाता, सूरदास-सुख-धाम।
अर्थः- सूरदास जी कहते है। कि निर्धनों के धन राम ही हमारे धन है। यह राम रूपी धन ऐसा है कि इसे चोर चुरा नही सकते । खर्च करने पर धन घटता है किन्तु यह राम रूपी धन खर्च करने पर कभी घटता नही है। आपत्ति-विपत्ति या कठिन परिस्थितियो में यही धन काम आता है। यह भगवन्नाम रूपी धन न तो पाली में डूबता या बहता है और न अग्रि मे जलता है। अर्थात प्रत्येक परिस्थिति में सुरक्षित रहता है। सूरदास जी कहते है। कि हे बैकुण्ठ के स्वामी, भगवान! आप सभी सुखों को देने वाले हैं और मेरे लिए तो आप सुखों के भण्डार हैं अर्थात मैं आप जैसा धन पाकर पूर्ण प्रसन्न एवं सन्तुष्ट हूॅ।
बड़ी है राम नाम की ओट।
सरन गयें प्रभु काढि देत नहिं करत कृपा कैं कोट।
बैठत सबै सभा हरि जू की, कौन बडौ को छोट।
सूरदास पारस के परसैं मिटति लोह की खोट।
अर्थः- सूरदास जी कहते है कि राम के नाम की शरण बहुत बडी है। जो व्यक्ति भगवान के नाम की शरण में जाता है अर्थात जो राम का नाम जपता बल्कि उसे अपने कृपा रूपी किले में बन्द करके उसकी पूर्ण सुरक्षा करते है। भगवान की सभा में सभी समान रूप से एक साथ बैठते है। वहॉ बडे-छोटे का कोई प्रश्न ही नही होता है अर्थात भगवान छोटे-बडे के साथ समान व्यवहार करते है उनकी दृष्टि में कोई छोटा-बडा या धनी-गरीब होता ही नही है। सूरदास जी कहते है कि जैसे पारस के स्पर्श से लोहे का दोष मिट जाता है ं और वह खरा सोना बन जाता है वैसे ही जो व्यक्ति राम-नाम की शरण में चला जाता है। उसके जीवन के सारे पाप-ताप नष्ट हो जाते है और वह विशुद्व सोने की भॉति भगवान का सच्चा भक्त बन जाता है।
जो सुख होत गुपालहिं गाऐ।
जो सुख होत न जप-जप कीन्हैं, कोटिक तीरथ नहाऐं।
दियें लेत नहिं चारि पदारथ, चरन-कमल चित लायें।
तीनि लोक तृन-सम करि लेखत, नंद-नॅदन उर आऐं।
बंसीबट वृदावन जमुना, तजि बैकुंठ न जावै।
सूरदास हरि कौ सुमिरन करि, बहुरि न भव-जल आवै।
सूरदास जी के दोहेंः- |
अर्थः- सूरदास जी कहते है कि जैसा सुख श्रीकृष्ण के गुण गाने से प्राप्त होता है वैसा सुख जप-तप करने तथा करोडों तीर्थो में स्नान करने से भी नही प्राप्त हो सकता। जब भगवान के कमलस्वरूपी चरणों में मन लग जाता है तो चारों पदार्थ (धर्म,अर्थ, काम, मोक्ष) भी तुच्छ प्रतीत होते है। अर्थात भगवान के चरणों में करता जब नन्द नन्दन भगवान श्रीकृष्ण ह्दय में विराज जाते है तो भक्त को तीनो लोकों की सम्तत्ति तिनके के समान दिखाई देती है। फिर तो भक्त वंशीवट (वह बरगद का पेड जिसके नीचे कृष्ण वंशी बजाते थे) वृन्दावन तथा यमुना को छोडकर बैकुण्ड (विष्ण्ुलोक) भी नही जाना चाहता। सूरदास जी कहते है कि भगवान का स्मरण करते रहने पर दुबारा इस भव सागर में नही आना पडता अर्थात जन्म-मरण के चक्कर में हमेशा के लिए छुटकारा मिल जाता है।
अब कैं राखि लेहु भगवान।
हौं अनाथ बैठ्यो दु्रम-डरिया, पारधि साधे बान।
ताकैं डर मैं भाज्यों चाहत, ऊपर ढुक्यौ सचान।
दुहॅू भॉति दुख भयो आनि यह, कौन उबारै सचान।
सुमिरत ही अहि, डस्यौ पारधी, कर छुट्यौ संधान।
सूरदास सर लग्यो सचानहि, जय जय कृपानिधान।।
अर्थः- भगवान की कृपालुता और उनकी दयालुता का वर्णन करते हुए सूरदास जी कहते है कि भगवान तो संसार के सभी प्राणियों पर दया करते है किन्तु जीव के अन्दर भगवान के प्रति श्रद्वा का भाव होना चाहिएं। यहॉ एक पक्षी का उदारण देकर सूरदास जी समझाते है। घोर संकट में फॅसा हुआ एक भगवान से प्रार्थना करता है कि हे भगवान इस बार इस संकट से मुझे बचा लीजिए। मैं अनाथ पक्षी एक वृक्ष की डाल पर बैठा हुआ हॅू। नीचे खडा हुआ शिकारी मेरे ऊपर बाण का सन्धान किये हुए है। उसके डर से मैं भागना चाहता हॅू किन्तु ऊपर मुझे खाने की ताक में बाज मडरा रहा है। हे प्रभु दोनों ओर से मेरे प्राणों पर संकट आ पक्षी म नही मन भगवान का स्मरण कर ही रहा था कि एक सॉप ने आकर शिकारी को डस लिया। हडबडाहट में शिकारी के हाथ से बाण छुट गया और वह ऊपर मॅडरा रहे बाज को लग गया। इस प्रकार भगवान का स्मरण करने से शिकारी और बाज दोनों मर गये तथा उस पक्षी के प्राण बच गये। सूरदास जी कहते है कि ऐसे दयालू कृपा के सागर भगवान की जय हो ।
तो दोस्तों यह सूरदास के प्रमुख दोहें जो आप लोगों को पसन्द आएगा।
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