bihari lal ji ke dohe बिहारी लाल के प्रमुख 30 दोहें हिन्दी (अर्थ सहित)ः-

बिहारी लाल जी हिन्दी साहित्य के प्रमुख कवि माने जाते है। बिहारी सतसई में बिहारी जी ने कृष्ण राधा प्रेम कि व्याख्या की है।  बिहारी लाल जी की 30 प्रमुख दोहेंः-(अर्थ सहित)ः-


मेरी भव-बाधा हरौ, राधा नागरि सोइ।
जा तन की झॉई परै, स्यामु हरित-दुति होइ।।
अर्थः-  राधा मेरी सांसारिक कष्टों का निवारण करें, जिनके शरीर का प्रतिबिम्ब पडने से भगवान कृष्ण के शरीर की आभा भी निष्प्रभ (हरित दुति) हो जाती है। 

अपने अंग  के जानि कै, जोबन नृपति प्रबीन।
स्तन , मन, नैन, नितम्ब कौ बडौ इजाफा कीन।।
अर्थः- एक सखी नायक से कहती है कि यौवन रूपी चतुर राजा ने नायिक के शरीर रूपी राज्य पर अधिकार कर अपने अन्तरंग पक्ष को जानकर नायिक के युवा होते ही, उसके स्तन, मन, नेत्र तथा नितम्बों की स्थिति में पर्याप्त समृद्वि कर दी है। अर्थात उन्हे बहुत बडा कर दिया है।

 अर तैं टरत न बर-परे, दई मरकु मनु मैन।
होडाहोडी बढि चले, चितु-चतुराई नैन।।
अर्थः-दूती नायिक के विषय में नायक से कहती हे कि उसके चित्त, चातुर्य और नेत्रों में परस्पर प्रतिद्वन्द्विता चल रही है कि कौन अधिक बढ जाए। वे इस प्रतियोगिता में कामदेव से बढावा पाकर और अधिक शक्तिशाली हो गये है।

औरे-ओप कनीनिकनु गनी घनी-सिरताज।
मनी धनी के नेह की बनी छनीं पट लाज।।
अर्थः-
नव यौवना मुग्धा नायिका की ऑखों में उत्पन्न अनुराग की चमक की ओर संकेत करते हुए एक सखी कहती है कि अपनी ऑख की पुतलियों में कुछ और ही प्रभा (प्रीति) के कारण तू सपत्नियों में शिरोमणि (सर्वश्रेष्ठ) गिनी गई है क्योकि तेरी ये दीप्तवान नेत्र पुतलियॉ लज्जा में लिपटी हुई पति के स्नेह की नीलम आदि मणियॉ बन गयी हैं।

सनि कज्जलल चख-झख-लगन, उपज्यौ सुदिन सनेहु।
क्यौं न नृपति हैं भोगवै, लहि सुदेसु सबु देहु।।
अर्थः- दूती नायिका से कहती है कि तेरे चक्षु रूपी मीन लग्र में कज्जल रूपी शनैश्वर नामक ग्रह की स्थिति पड जाने से, इस शुभ अवसर में नायक के प्रति अधिकार करके राजा के सतमान उसका उपयोग क्यों नहीं करती है 

सालाति  है नटसाल सी, क्यो हूॅ निकसकत नॉहि। ,
मनमथ-नेजा-नोक सी, खुभी खुभी जिय मॉहि।।
अर्थः-नायिका की सखी से नायक कहता हे कि शरीर के भीतर प्रविष्ट हुए तीर की टूटी नोंक के समान मुझे दुःख देती हुई कामदेव के भाले की नोक की भॉति (नायिक) की खुभी कर्णाभरण मेरे मन में चुभ गयी है जो किसी भी प्रकार बाहर नही निकल पा रही है।

जुवति जौन्ह मैं मिलि गई, नेक न होति लखाइ।
सौधें कैं डौरे लगी, अली चली संग जाइ।।
अर्थः- दूती अपनी सखी से नायिका का रूप-वर्णन करती है  कवह गौराग्डना शुभ चॉदानी में मिलकर ऐसी एकाकार हो गई कि दोनों का अन्तर नही दिखाई सखी उसके साथ-साथ चल रहे थे।

हौं रीझी, लखि रीझिहौ छबिहिं छबीले लाल।,
सोनजुही सी होति दुति-मिलत मालती माल।।
अर्थः-नायिका की सखी अथवा दूती नायक से कहती है कि उस सुन्दरी के रूप् का क्या बखान करूॅ। मैं तो उसे देखते ही रीझ गयी और हे छबीले लाल तुम भी उसकी छवि देखकर रीझ जाओगे। उस नायिका के शरीर की गोराई कुछ इस पं्रकार की है कि उसकी आभा का स्पर्श ही माला में पिरोयें मालती के फूल सोनजुही के फूल-सा प्रतीत होने लगते हैं। अर्थात श्वेत पुष्प् भी सुनहरे अथवा कुंदन (स्वर्ण) के रंग से लगने है।

बहके-सब जिय की कहत, ठौर कुठौर लखैं न।
छिन औरे छिन ओर से, ए छवि छाके नैन।।
अर्थः- कोई नायिका अपनी सखी से कह रही है कि ये नेत्र तो उस नायक की रूप-मदिरा पीकर छक गये हैं। इसलिए उचित-अनुचित का विचार छोडकर बहक रहे हैं अर्थात मेरे मन की सारी बातें कह देते हैं। पल-पल पर उसी की ओर देखने लग जाते हैं। ये क्षण में किसी और प्रकार के हैं तो दूसरे क्षण और ही प्रकार के हो जाते है।

फिरि फिरि चितु उतहीं रहतु, टुटी लाज की लाव।
अंग -अंग छबि-झौंर मैं, भयौं की नाव।।
अर्थः- नायक नायिका की अन्तरंग सखी के पास आकर कहता है कि मेरा मन तो फिर-फिर कर उधर ही (नायिका की ओर ) चला जाता है। क्योंकि अब लाज और मर्यादा की रस्सी तो टूट चुकी है अतः यह मन उसके अंग-प्रतंग की छवियों के समूह पर आकर्षित होकर भॅवर के बीच फॅसी हुई नाव बनकर रह गया है।

नीकी दई अनाकनी, फीकी परी गुहारि। 
तज्यौ मनौ तारन-बिरदु, बारक वारनु तारि।ं
अर्थः- भक्त कहता है कि हे प्रभु मैंत तुम्हें पुकारता रहा और तुमने अच्छी अनसुनी कर दी। तुम्हरे न सुनने से हमारी पुकार फीकी पड गयी है। हमें तो यह प्रतीत होता है कि मानो एक बार हाथी को मगर के मुख से मुक्त कराने के बाद आपने अपना तारने वाले कहलाने वाला यश छोड दिया है।

चितई ललचौंहे चखनु, डटि घूॅघट-पट मॉह। 
छल सौं चली छुबाइ कै, छिनकु छबीली छॉह।।
अर्थः-सखी दूसरी सखी से परकीया नायिका की (नायक के प्रति की गई) चुष्टाओं का वर्णन करती है कि उसने घर में प्रवेश कारने से पूर्व घूॅघट में से नायक की ओर ऑख भरकर देखा। वह छबीली क्षण-भर के लिए छलपूर्वक अपनी छाया द्वारा उसका स्पर्श करती हुई घर के भीतर चली गयी।

जोग-जुगति सिखए सबै मनौ महामनि मैन।
चाहत पिय अद्वैतता काननु सेवत नैन।।
अर्थः- सखियॉ नायिका से कहती हैं कि ऐसा प्रतीत होता है कि मानो कामदेव रूपी महामुनि ने तुम्हारे श्रवण रन्धों (कान) तथा विस्तृत नेत्रों (ऑख) को योग की सभी युक्तियॉ अर्थात प्रिय से मिलन (योग) की विधियॉ विधिवत्् सिखा दी है। इसी कारण तेरे नेत्र प्रियतम से अद्वैतता चाह रहे हैं अर्थात प्रिय (नायक) से मिलना चाहते हैं। तात्पर्य यह कि अब तेरे नेत्रों की शोभा पर रीझ कर तेरा प्रिय तेरी ऑखों के सामने ही रहेगा।

खरी पातरी कान की, कौन बहाऊ बानि।,
आक-कली न रली करै, अली , अली जिय जानि।।
अर्थः- मानिनी नायिका को सम्बोधित करती हुई उसकी सखी कहती कि तू कान की बहुत कच्ची है। यह बुरी आदत तूने कहॉ से सीख ली है। अरी सखी तू इस बात को भली भॉति समझ ले कि भौंरा आक के पौधे  (मदार का पौधा) की कली में कभी dazhMk नही करता अर्थात मान करने से तू प्रियतम का प्रेम नही पा सकती।

पिय बिछुरन कौ दुसहु दुख, हरषु जात प्यौसार।
दुरजोधन लौं देखियति, तजत प्रान इहि बार।।
अर्थः-एक सखी दूसरी सखी से कहती है कि एक ओर तो इसे प्रियतम से दूर होने की अत्यन्त दुःसह व्यथा हो रही है और दूसरी ओर पिता के घर जाने का हर्ष भी हो रहा हैं। मुझे ते ऐसा लगता है कि कहीं यह दुर्योधन की भॉति अपने प्राण-त्याग न कर दे।

झीनैं पट में झुलमुली, झलकति ओप अपार।
सुरतरू की मनु सिंधु में लसति सपल्लव डार।।
अर्थः- नायक से नायिका का रूप-वर्णन करते हुए, दूती कहती है कि जब उसकी झुलमुली महीन घूॅघट में से बाहर की ओर झलकती है, तब उसकी अपार शोभा इतनी सुन्दर लगती है, मानो सागर में कल्पवृक्ष की डाल अपने पल्लवों के साथ लहरा रही हो।

डारे ठोडी-गाड गहि नैन-बटोही मारि।
चिलक-चौध मै रूप-ठग, हॉसी-फॉसी डारि।।
अर्थः-कवि नायिका के ठोडी के गड्ढे पर टिकी नायक की दृष्टि का वर्णन करते हुए कहता है कि ऐसा प्रतीत होता है कि मानो नायिका के सौन्दर्य रूपी ठग ने अपने रूप् की चकाचौंध से हक्का-बक्का करके तथा हॅसी रूपी फॉसी डालकर नयनरूपी पिाकों को अपने वश में करके ठोडी रूपी गड्ढे में डाल दिया है और अब वे वहां बेवस पडे हैं।

कीन्है हूॅ कोरिक जतन, अब कहि काढै, कौनु।
भो मनमोहन रूप मिलि, पानी मैं कौ लौनु।।
अर्थः- राधा अिवा कोई अन्य नायिका दूती से कहती है कि मेरा मन तो मोहन के रूप-सौन्दर्य में मिलकर उससे अलग-अलग नही हो पाते। यहॉ नायिका यही प्रकट करना चाहती है कि अब तो वह नायक में ही लीन हो गयी है। प्रेम में तन्मयता आ जाने पर कोई भी भेद नही रह जाता है।

लग्यौ सुमन है् है सफल, आतप-रोसु निवारि।
बारी, बारी आपनी, सीचि सुह्दता बारि।।
अर्थः- मानिनी नायिका की सखी उससे कहती है कि तुम क्रोध-रूपी गरमी को दूर करके अपनी बारी आने पर इस प्रेम रूपी वाटिका का सिंचन कर, जिससे इनके मन रूपी सुन्दर सुमन पर सफलता (प्रेम का फल, प्रेम मिलन)भी आ जाए।

अजौ तर्यौना हीं रहा श्रुति सेवत इक-रंग।
नाक-वास बेसरि लहा बसि मुकुतनु के संग।।
अर्थः-तर्यौना नाम के कान के आभूषण की हीनता तथा नाक के आभूषण बेसर के महत्व को प्रतिपादित करते हुए कवि कहता है कि एक ही ढग से कान में लटकते हुए अथवा एक ही प्रकार कानों का सेवन करते हुए तरयौना नाम का आभूषण तरयौना ही रहा। अर्थात वह तर नही पाया। उसे शरीर के मुख्य स्थान की शोभा बनने का अवसर नही मिला जबकि मोतियो का संग पाने के कारण खच्चर के पर्यायवाची के नाम वाले बेसर नाम के आभूषण को नासिका अर्थात शरीर के उच्च स्थान पर शोभित होने का अवसर प्राप्त हुआ।

 जम-करि-मुॅह तरहरि पर्यौ, इहिं धरहरि चित्तलाउ।
विषय-तृषा परिहरि अजौं नरहरि के गुन गाउ।।
अर्थः- कवि कहता है कि तू विचार करके देख कि तू यमरूपी हाथी के मूॅह के नीचे पडा है, तू इस निश्चय पर चित्त लगा और यदि तू अपना कल्याण चाहता है तो अभी भी समय है। तू विषय रूपी तृष्णा को छोडकर नरहरि के गुणों का गानकर।

पलनु पीक, अंजनु अधर, धरे महावरू भाल।
 आजु मिले सो भली करी, भले बने हो लाल।।
अर्थः- खण्डिता नायिका नायक को पर-स्त्री सहवास कर लौटता हुआ देखकर कहती है कि तुम्हारी पलकें रात भर जगने के कारण अथवा नायिका द्वारा चूमे जाने से लाल हो रही है। तुम्हारे अधरों पर काजल लगा है, अर्थात तुमने उसकी ऑखों को चूमा होगा। तुम्हारे माथे पर महावर स्पष्ट कह रहा है कि तुमने उसके चरणों में सिर रखकर  (रतिदान के लिए) प्रार्थना की होगी। आज तो तुमसे उसका मिलन हुआ है, सो तो ठीक है परन्तु हे लाल यह तुमने रूप कैसा भला (बुरा) धारण कर रखा है।

लाज गरब-आलस-उमंग-भरे नैन मुसकात।
राति रमी रति देति कहि, औरे प्रभा प्रभात।।
अर्थः- एक सखी दुसरी सखी से कहती है कि नायिका के मुख की प्रभातकालीन छवि ही यह बता रही है कि वह रात में नायक के साथ रमण करती रही है क्योकि उसके नेत्र लज्जा, गर्व, अलसता तथा उमंग से पूर्ण होकर मुस्करा रहे है।

पति रति की बतियॉ कही, सखी लखी मुसकाइ।
कै कै सबै टलाटली, अलीं चली सुखु पाइ।।
अर्थः- एक सखी दूसरी सखी से कहती है कि जैसे ही नायक नायिका के पास आया और उसने रति की बातें करना प्रारम्भ कर दिया, उसने (नायिका ने) सखियों की ओर मुस्कुराकर देख। सखियॉ भी मुस्कुराती हुयी मनमें हर्षित होकर वहॉ से एक-एक करके चली गयी।

तो पर वारौं उरबसी, सुनि राधिके सुजानं।
तू मोहन कै उर वसी है् उरवसी समान।।
अर्थः- श्रीकृष्ण की दूती के रूप में एक सखी राधा से कहती है, हे प्रवीण राधे तू तो स्वर्गलोक की अप्सरा उर्वशी से भी आधिक सुन्दर है। उर्वशी का सौन्दर्य तो मैं तेरे ऊपर न्यौछावर करती हूॅ। तू तो मोहन के उर मे उरबसी अर्थात ह्दय में धारण करने वाले आभूषण के समान बसी हुई है। तात्पर्य यह है कि जब तू कृष्ण के ह्दय में बसी ही है तब कोई अन्य सखी उनके ह्दय में कैसे बस सकती है।

कुच-गिरि चढि, अति थकित है्, चली डीठि मुॅह-चाड।
फिरि न टरी परियै रही, गिरी चिबुक की गाड।।
अर्थः- नायक नायिका की चिबुक का स्वगत वर्णन करता है कि मेरी दृष्टि उसके कुचों की पहाडी पर चढकर अत्यन्त थकित होकर, मुख विचुम्बन की चाह करके उधर (उन्मुख) की ओर चल पडी, किन्तु बीच में ही वह चिबुक के गडढे में जा गिरी और वहॉ से फिर टल न सकी।

बेधक अनियारे नयन, बेधत करि न निषेधु।
बरबट बेधतु मो हियौ, तो नासा कौ बेधु।।
अर्थः- नायिका के सर्वाग्ड रूप् पर आसक्त नायक कहता है कि तेरे ये नुकीले नेत्र तो बडे बेधक हैं, अतः यह कोई अनुचित कार्य नही कर रहे हैं। उनके लिए तो यह स्वाभाविक ही है। फिर भी तेरी नासिका का  रन्ध्र तो बरबस ही मेरे मन को बेध डाल रहा है।

लौनें मुॅह दीठि न लगै यौं कहि दीनौ ईठि।
दूनी है् लागन लगी दियै दिठौना दीठि।।
अर्थः- दिठौना लगाने के बाद नायिका के मुख की शोभा और अधिक बढ जाने पर नायक परिहास के साथ कहता है कि हे! सुन्दरी तेरी सखी ने तो यह विचार करके तेरे मुख पर दिठौना अर्थात कालिख का टीका लगाया है कि तेरे सलोने मुख किसी की दृष्टि (कुदृष्टि नजर ) न लगे। परन्तु दिठौना लगाने के बाद तो तेरे मुख की शोभा ऐसी बढ गयी कि उस पर दृष्टि दूनी होकर लगने लगी है। अर्थात अब तो बार-बार तेरे मुख मंडल की ओर ही दृष्टि जाती है।

चितवनि रूखे दृगनु की, हॉसी-बिनु मुसकानि।
मानु जनायौं मानिनी, जान लियो पिय, जानि।ं।
अर्थः- मानिनी नायिका का वर्णन करते हुए एक सखी दूसरी सखी से कहती है कि नायिका का अत्यन्त रूक्ष भाव से नायक की ओर देखना और नायक का बिना किसी हॅसी की बात के ही मुस्कराना इस बात को ध्वनित करता है कि मानिनी नायिका अपनी रूखी चितवन से मान जता रही है और नायक की खिसियाहट की मुस्कान उस मान से अवगत हो जाने को घोषित कर रही हैै।

पाइ महावरू दैन कौं नाइनि बैठी आइ।
फिरि फिरि जानि महावरी, एडी मीडति जाइ।।
अर्थः- कवि कहता है कि नायिका की एडी का रंग ऐसा लाल है कि नाइन को एडी के रंग और महावर की गोली में कुछ भेद ही नही प्रतीत होता । वह नायिका के महावर लगाने के लिए आकर बैठी और एडी की लालिमा से भ्रमित होकर महावर की गोली समझ एडी को ही मोडती (रगडती) रही।

मैं उम्मीद करता हु कि बिहारी लाल जी के बताये गयें दोहे आपको पसन्द आएगी । नीचे कमेंट बॉक्स  में में जरूर बताए A /kU;kon

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Milan Tomic

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3 comments:

  1. बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति पेशकश की है

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  2. बहुत बहुत सुन्दर और मीठी है प्रणाम

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  3. कविवर बिहारी के दोहे रोचक व आलकारिक है

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