kabirdas ke dohe कबीरदास जी के 20 कुछ अच्छे दोहे है कबीरदास जी के दोहे कबीरदास जी के दोहे हिन्दी में , बडा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड खजूर पंथी को छाया नही, फल लागे अति दूर।




कबीरदास जी के 20 कुछ अच्छे दोहे है जो मैं आप लोगों को बताना चहता हॅू। तो यें कबीरदास जी के दोहे  कबीरदास जी के दोहे हिन्दी में 

कबीर दास के दोहे हिन्दी मेंः-हम लोग जब दोहों की बात करते है तो सबसे पहले संत कबीर दास जी का नाम आता है क्योकी संत कबीर दास जी अनपढ होते हुए भी ऐसे-ऐसे दोहों की रचना कि है कि जिनके दोहें आज बहुत प्रचलित हैं तो चालिए आप लोगों कबीरदास कि 20 दोहों पर नजर डालते है।




जल में कुंभ कुंभ में जल है,

 बाहर भीतर पानी।
फूटा कुंभ जल जल ही समाया,
यही तथ्य कथ्यो ज्ञानी
अर्थ- कबीरदास जी कहते हैं कि उपरोक्त पंक्ति में कबीरदास जी का अध्यात्म ज्ञान का पता चलता है, उदाहरण देकर बताना चाहते है, कि किस प्रकार शरीर के भीतर और शरीर के बाहर आत्मा का वास है, उस परमात्मा का रूप है। शरीर के मरने के बाद जो शरीर के भीतर की आत्मा है वह उस परमात्मा में लीन हो जाती है। घडा के फूटने पर जल का विलय जल में ही हो जाता है।
ठीक उसी प्र्रकार हमारी जीवात्मा हमारे शरीर से मुक्त होकर परमात्मा में लीन हो जाता है।

              ऐसी बानी बोलिये।  मन का आपा खोय।

              औरन को शीतल करै। आपो शीतल होय।
अर्थ- कबीरदास जी कहते है कि मनुष्य को ऐसी वाणी बोलनी चाहिए जिससे आप का मन हमेशा खुश रहे और आपकी कि वाणी सुनकर दुसरे लोग भी खुश रहे और आप कि वाणी के कारण आपका सम्मान हो।

               बुरा जो देखन मैं चला,  बुरा न मिलिया कोय,

              जो दिल खोजा आपना,  मुझसे बुरा न कोय।
अर्थः कबीरदास जी कहते है कि जब मैं इस संसार में बुराई खोजने चला तो मुझे कोई बुरा न मिला। जब मैने में झॉक कर देखा तो पाया कि मुझसे बुरा कोई नही है।

              अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप,

              अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।
अर्थः- न तो अधिक बोलना अच्छा है, और न ही जरूरत से ज्यादा चुप रहना ही ठीक है। जैसे बहुत अधिक वर्षा भी अच्छी नहीं और बहुत अधिक धूप भी अच्छी नहीं हैं।

               जब गुण को गाहक मिले, तब गुण लाख बिकाई।

              जब गुण को गाहक नही, तब कौडी बदले जाई
अर्थः-कबीरदास जी कहते है कि जब गुण को परखने वाला गाहक मिल जाता है तो गुण की कीमत होती है। पर जब ऐसा गाहक नहीं मिलता, तब गुण कौडी के भाव चला जाता है।

             निंदक नियेरे राखिये, ऑगन कुटी छावायें।

             बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करे सुहाए।
अर्थः- कबीरदास जी कहते है कि निंदक (हमेशा दूसरों की बुराइयां करने वाले ) लोगों को हमेशा अपने पास रखना चाहिए, अगर ये लोग आप के पास रहेगें तो आपकी बुराइयो को बताते रहेगें जिससे आपको अपनी बुरइयो के बारे पता चलता रहेगा। और आप अपनी बुराइयों को सुधार सकते है। इसीलिए कबीरदास जी कहते है कि निंदक लोग लोगों का स्वभाव को शीतल बना देता है।

माटी कहे कुम्हार से, तू क्यो रोंदे मोहे।

एक दिन ऐसा आएगा, मै रोंदुगी तोहे।
अर्थः- कबीरदास जी कहते है कि जब कुम्हार बर्तन बनाने के लिए मिट्टी को रौद रहा था, तो मिट्टी को रौंद रहा है, एक दिन ऐसा आएगा जब तू इसी मिट्टी में मिल जायेगा और मैं तुझे रौदुगी

साई इतना दीजिये, जा मे कुटुम समाय,
मैं भी भूखा न रहॅू, साधू ना भूखा जाय।
अर्थः- कबीरदास जी कहते है कि प्रभु इतनी कृपा करना कि जिसमे मेरा परिवार खुश रहे। और मैं भी भूखा न रहूॅ। और जो मेरे घर में जो अतिथि आये वह भी भूखा न जाये।




काल करे सो आज कर, आज करे सो अब 
पल में परलय होयगी, बहुरी करोगे कब
अर्थः- कबीरदास जी कहते है कि कोई भी कोर्य कल पर न टाले बल्कि उसे आज अभी करे डाले ऐसा न हो कि पल में परलय न हो जाये तब अपना कार्य कब करोगे

बडा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड खजूर 
पंथी को छाया नही, फल लागे अति दूर 
अर्थः- कबीरदास जी कहते है कि सिर्फ बडा होने से कुछ नही होता जिस प्रकार खजूर का पेड इतना ऊचा होने के बावजूद न किसी को छाया दे सकता है। और इतनी ऊचा होने के कारण इसका कोई फल भी नही तोड सकता हैं।

 राम नाम कै पटंतरै, देबे कौं कछु नाहिं।
क्या लै गुरू संतोखिये, हौंस रही मन भॅाहिं।।
अर्थः- कबीरदास जी कहते है कि गुरू ने मुझे ज्ञान के इस आलोक से आनन्दित कर राम का नाम प्रदान किया है। उसके समकक्ष उन्हें देने को मेरे पास कुछ भी नही हैं मेरा तमन सदैव इसी इच्छा से प्रसन्न रहता है कि मैं गुरू को किस भॉति सन्तुष्ट करूॅ। भाव यह है कि गुरू ने मुझे राम-नाम का जो दान दिया है उसके बराबर मैं उन्हें कोई दक्षिणा देने में असमर्थ हॅॅू।

सतगुरू सवॉ न को सगा, सोधी सई न दाति।
हरि जी सवॉ न को हितू, हरिजन सई न जाति।।
अर्थः- कबीरदास जी कहते है कि सतगुरू के समान अपना कोई सगा सम्बन्धी नहीं हैं। पह अनल शिष्य को खोज-खोज कर ज्ञान का दान देता रहता है अर्थात गुरू से बढकर कोई शोधक भी नही है। भगवान के समान कोई हित चाहने वाला नही है और हरि के भक्तों से बढकर कोई जाति नही हैं।

चौंसठि दीवा जोइ करि, चौदह चंदा मॉहि।
तिहि घरि किसकौ चॉदिनौं, जिहि घरि सतगुरू नॉहिं।।
अर्थः- कबीरदास जी कहते हैं कि जिस घर में  सतगुरू का निवास नही हैं वह घर चौंसट कलाओं और चौदह विद्याओं से प्रकाशित होने पर भी अन्धकार ग्रस्त ही रहेगा। भाव यह है कि गुरू के ज्ञान के सामने चौंसठ कलाएं  एवं चौदह विद्याओं का ज्ञान सब बेकार हैं। 

निसि आंधियारी कारनैं, चौरासी लख चंद।
गुरू बिनु अति उदै भए, तऊ दिष्टि रहि मंद।।
अर्थः- कबीरदास जी कहते हैं कि रात्रि के अंधकार (अज्ञान रूपी रात्रि के अन्धकार ) को दुर काने के लिए यदि अत्यन्त आतुरतावश चौरासी लाख चन्द्रमाओं को उदित कर लिया जाये तो भी गुरू के न रहने के कारण दृष्टि मन्द ही रहेगी। वहॉ प्रकाश नही होगा अन्धकार ही छाया रहेगा। भाव यह है कि गुरू ज्ञान के बिना चौरासी लाख चन्द्रमाओं का प्रकाश निष्फल रहेगा।

सतगुरू बपुरा क्या करै, जो सिखही मॉहे चूक।
भावै त्यों परमोधिए, ज्यों बॉसि बजाइये फूक ।।
अर्थः-कबीरदास जी कहते है कि यदि शिष्य में कमी या त्रुटि हे तो बेचारा गुरू क्या कर सकता है जिस प्रकार मुरली में उसे बजाने के लिए चाहे कितनी ही बार द्यफूकिये पर छिद्रों के कारण वायु उसमें ठहरती ही नही हैं। उसी प्रकार सदगुरू शिष्य को कितना ही उपदेश दे वह उसे ग्र्रहण नही कर पाता। वायु का साथ पाकर भी मुरली काष्ठवत(जड) रहती है वैसे ही शिष्य भी ज्ञान हीन बना रहता है। 

जाका गुरू है ऑधरा, चेला है जाचंधं
अंधै अंधा टेलिया, दोन्यूं कूप परंत।।
अर्थः- कबीरदास जी कहते हैं कि जिस शिष्य का गुरू अन्धा है और चेला उससे भी अधिक अन्धा है तो ऐसी स्थिति में वे दोनो एक-दूसरे को ठेलते-ठेलते कुए में गिर पडते है।

सतगुरू कै सदकै किया, दिल अपनी का सॉच।
कलिजुग हमसौं लडि पडा, मुहकम मेरा बौंच।।
अर्थः- कबीरदास जी कहते है कि मैं सतगुरू के चरणों में सच्चे दिल से अपने को न्योवछावर करता हॅू। कलियुग मुझे विचलित करने के लिए मुझसे लड पडा पर सतगुरू मेरे इतने शक्तिशाली हैं कि उन्होने मुझे उस दुष्ट कलियुग से बचा लिया। (भाव यह हे कि यदि गुरू की कृपा न होती तो मैं कलियुग के जाल में फस जाता)

सतगुरू लई कमान करि, बाहन लागा तीर।
एक जु बाहा प्रीति सौं, भीतरि भिदा सरीर।।
अर्थः-कबीरदास जी कहते है कि सतगुरू ने हाथ में धनुष लिया और वाण चलाने लगा। अनेक वाण तो निष्फल हो गयें परन्तु प्रेम से भरा हुआ जब एक वाण गुरू ने मारा तो वह शिष्य के शरीर मे प्रविष्ट होकर उसके मन में चुभ गया। और चुभा रहा। उसने शिष्य के मन को सांसारिकता से हटाकर ब्रम्हा में लगा दिया।

हॅंसै न बोलै उनमुनीं, चंचल मेला मारि।
कहै कबीर भीतरि भिदा, सतगुर के हथियारि।।

अर्थः- कबीरदास जी कहते हैं कि मन की चंचल वृत्तियों को नष्ट कर सद्गुरू का प्रेमरूपी वाण शिष्य के अन्तर में बिंध गया और मन सांसारिक हास-विलास से उदासीन हो गया। अब उन्मनी अवस्था आ गई अर्थात तन ि धारा जो संसार की ओर प्रवाहित थी वह उलटी हो गई और मन परमात्मा में लग गया।

पॉसा पकडा प्रेम का, सारी किया शरीर।
सतगुरू दॉव बताइया, खुलै दास कबीर।।
अर्थः- कबीरदास जी कहते है कि मैंने प्रेम की गोटी पकडकर शरीर रूपी बिसात (बिछाया जाने वाला कपडा) पर सदगुरू द्वारा बताये गये दॉव से चौपड खेलना प्रारम्भ कर दिया है। भाव यह है कि साधक ने प्रेम का आश्रय लेकर गुरू के निर्देशन में योगाभ्यास आरम्भ कर दिया है।

तो कुछ कबीरदास जी के २०  कुछ अच्छे दोहे है जो मैं आप लोगों को बताना चहता हॅू।
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Milan Tomic

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